गांव रामपुरा का उद्वभव वर्ष 1705 के लगभग होना बताया जाता है। रामपुरा गांव के पूर्वज बासखोह में रहते थे। यहा पर सभी बासकुआ गोत्र के लोग थें। बासकुआ गोत्र के लोगों की कुल देवी आशावरी देवी थी जो बासखोह में पहाडो के मध्य में स्थित है। बासकुआ गोत्र के लोग हर वर्ष मांता आशावरी देवी के एक मनुष्य की बली चढा कर भोग लगाते थे। उस समय मांता की दिव्य शक्ति थी। जो भगतों की शीघ्र सुनती थी। एक बार माता आशावरी देवी के भोग (बली) लगाने के लिए मनुष्य की व्यवस्था नही होने पर बासखोह के ठाकूर के पोते को बासकुआ गोत्र के लोग उठा लाते है। ओर माता की शक्ति से उसे भेड का मेमना बना कर ढोखले के नीचे दबा देते है। उधर ठाकुर का पोता नही मिलने पर पूरे बासखोह में हल्ला हो जाता है। सभी बच्चे को ढुढने में लग जाते है। पर बच्चा नही मिलता है। बली के दिन जब बली दी जा रही थी तो किसी ने ठाकुर को यहा बता दिया कि आपके बच्चे की बली दी जा रही है। उसे मेमना बना कर दबाया हुआ है। जब तक ठाकुर माता आशावरी के स्थान पर भोग पर पहुचा तो बली दी जा चुकी थी। ओर भोग लग चुका था। ठाकुर को कोई सबूत नही मिला तो वह वापिस लोटने लगा तो उसे घंूघरू की आवाज सुनाई दी जो कि उस बच्चे के गले में बंधा हुआ था। ठाकुर उस घुंघरू को देख कर पहचान लेता है। मगर किसी को कुछ नही कहता। मन ही मन प्रतिशोध लेने की सोचने लगा। तब उसने एक योजना बनाई कि बासकुआ गोत्र के लोग दीपावली को अपने पूर्वजों का पानी देने के लिए इक्कटे होते है, ओर उस समय सभी को मारा जा सकता है। दीपावली का दिन आया ओर मुताबिक योजना के ठाकूर ने अपने आदमी हथियारो सहित छुपा दिया। जैसे ही बासकुआ गोत्र के लोग दीपावली को पूर्वजो को पानी देने के लिए इक्कटे हुऐ ओर यह मान लिया की सभी आ चूके है तो ठाकुर के आदमियों ने ताबडतोर वार कर एक-एक को मोत के घाट उतार दिया। ओर बासकुआ कुल का एक भी वारिस वहा बचने नही दिया। इस तरह ठाकुर ने अपना बदला पूरा किया। परन्तु माता आशावरी की भक्ति एवं शक्ति से एक लडका उस दिन वहा नही होकर बाहर गया हुआ था। उसकी शादी दोलतपुरा के पास गुसार की ढाणी में बचपन में ही हो गई थी। कम उम्र होने के कारण वह डर गया ओर बासखोह नही जाकर सन्यासीयों के साथ रहने लगा। ओर एक दिन वह घूमता हुआ गुसार पहुच गया। जहा उसके ससुराल वालो ने समझाई कर उससे सन्यासीयों के साथ जाने से रोक लिया। ओर अपना घर बसाने के लिए तैयार किया ओर वह मान गया। वर्ष 1705 के लगभग उक्त एक मात्र बासकुआ गोत्र के वारिस गुसार से चल कर वर्तमान रामपुरा पहुचा जहां पूर्व में पानी का तालाब हुआ करता था। वह तालाब के किनारे झोपडी बना कर अपनी पत्नी के साथ रहने लगा। दोनों से उत्पन बच्चों का परिवार ही वर्तमान रामपुरा गांव बना। आज भी रामपुरा ओर गुसार में आपस में शादी ब्याह नही होते क्यो कि गुसार रामपुरा का मामा है। ओर वहा के निवासी भाई ओर बहिन लगते है।